महाराणा प्रताप की कर्मस्थली हल्दीघाटी में आपका स्वागत है !!

हल्दीघाटी का दर्रा इतिहास में महाराणा प्रताप और अकबर की सेना के बीच हुए युद्ध के लिए प्रसिद्ध है। यह राजस्थान की अरावली पर्वत शृंखला में खमनोर एवं बलीचा गांव के मध्य एक दर्रा है। इसका नाम ‘हल्दीघाटी’ इसलिये पड़ा क्योंकि यहाँ की मिट्टी हल्दी जैसी पीली है।

हल्दीघाटी के प्रमुख दर्शनीय स्थल में मुख्य युद्ध स्थल रक्त तलाई, मुग़ल पड़ाव शाही बाग़, पहाड़ी दर्रा, प्रताप गुफा, चेतक समाधी, चेतक नाला व महाराणा प्रताप स्मारक सूर्योदय से सूर्यास्त तक निःशुल्क भ्रमणीय है ।

यहां सरकारी स्तर पर बनने वाला संग्रहालय आज तक नहीं बन सका है। हल्दीघाटी कक्ष सिटी पैलेस उदयपुर संग्रहालय में युद्ध से जुड़ी सामग्री सुरक्षित है। सरकारी संग्रहालय निर्माण में लगातार दशकों से उदासीनता के कारण यहाँ एक निजी प्रतिष्ठान द्वारा बलीचा गांव में संग्रहालय के नाम पर व्यापार चलाया जा रहा है । जिसके चलते पर्यटक मूल स्थलों तक नहीं पहुंच पाता है। साथ ही पर्यटक माफिया के रूप में निजी प्रतिष्ठान द्वारा हल्दीघाटी के प्राकृतिक स्वरुप को नष्ट किया जा रहा है ।

हल्दीघाटी मेवाड़ का विश्व प्रसिद्ध रणक्षेत्र है। स्वतन्त्रता प्रेमियों के लिए अजर अमर प्रेरणा की स्त्रोत यह रणभूमि, जिसकी तीर्थ यात्रा कर स्वतन्त्रता के पुजारियों का मस्तक महाराणा प्रताप और उनके स्वामी भक्त अश्व  चेटक सहित मेवाड़ी सेना में भाग लेने वाले शूरवीरों एवं आदिवासी ( भील ) योद्धाओं  के प्रति श्रृद्धा से अवनत हो उठता हैं। ऐसे इतिहास प्रसिद्ध  हल्दीघाटी का शौर्य पूर्ण संग्राम जो कि भारतीय इतिहास में स्वर्णांक्षरो में अंकित है और आज भी देशभक्तों की प्रेरणाओं का अमर स्त्रोत हैं।

18 जून 1576 की सुबह राजा मानसिंह के नेतृत्व वाली शाही सेना खमनोर के नजदीक एक तंग पहाड़ी दर्रे से गोगुन्दा की तरफ गुजरने वाली थी। यह दर्रा इतना संकडा था जिसमें एक समय में सिर्फ एक घुड़सवार सैनिक ही गुजर सकता था। इस लम्बे पहाड़ी दुर्गम दर्रे में प्रवेश करती शाही सेना पर महाराणा प्रताप के सेनापति हाकिम खान ने 800 अफगान घुड़सवारों को लेकर युद्ध का धावा बोल दिया, राणा कीका भी रण बाँकुरी सेना के साथ निकल कर हाकिम खान के साथ आ गया । भयानक कांटेदार पहाड़ी क्षेत्र से तीरों व पत्थरों की बौछारें होने लगी। इस अप्रत्याशित आक्रमण से शाही सेना का अग्रिम भाग बुरी तरह परास्त हुआ। आक्रमण से मुगल सेना में हडकम्प मच गया व लडखड़ाती फौज वहाँ से हार कर भेड़ों की तरह दूर बनास नदी को पार कर मोलेला की ओर भाग खड़ी हुई । एक बार तो ऐसा लगने लगा कि महाराणा प्रताप ने युद्ध में विजयश्री हासिल कर ली है  ।

महाराणा प्रताप स्वयं युद्ध के दौरान मेवाड़ी सेना के केंद्र में रह कर कमान सम्भालें हुए थे। उनकी सैन्य व्यूह- रचना में दाहिनी ओर ग्वालियर नरेश रामशाह तंवर व उनके तीन पुत्र शालीवाहन, भवानीसिंह, प्रतापसिंह, भामा शाह व उनके भाई ताराचंद आदि थे। वहीं बाई तरफ सादड़ी ठिकाने के झाला मान सिंह ( बीदा ), जैत सिंह राजावत, मानसिंह सोनगरा आदि थे । हरावल में लावा सरदारगढ़ के भीमसिंह डोड़िया, पठान हाकिम खाॅं सूर, रावत कृष्णदास चूंडावत, राठौड़ रामदास,रावत सांगा आदि रहे जबकि चन्दावल में भील सरदार मेरपुर के राणा पुँजा, पुरोहित  गोपीनाथ, पुरोहित जगन्नाथ, पडिहार कल्याण, जयमल्ल, रत्नचंद, जैसा और केशव चारण आदि थे।

 

शाही सेना को दयनीय स्थिति में भागते देखकर अकबर की सुरक्षित शाही लश्कर का सरदार मेहतर खान जो मोलेला के नजदीक सोलह सरदारों के छापर नामक स्थान पर पड़ाव डाले हुए था, उसने ढोल बजा कर चिल्लाते हुए सेना के साथ युद्धक्षेत्र की तरफ बढ़ना आरम्भ किया व झूठी अफवाह फैला दी कि शहंशाह  स्वयं युद्ध करने आ चुके है। इस झूठी अफवाह से युद्ध में अचानक बदलाव आ गया। भागते मुगल सैनिक खमनोर के खुले मैदान में पुनः युद्ध करने लगे । राजपूती सेना में इससे खलबली मच गई। खमनोर के मैदानी भाग रक्त तलाई में भयंकर मार काट से चारों ओर लाशें गिरने लगी । दोनो सेना के योद्धाओं को अपने जीवन की चिन्ता नहीं थी। महाराणा के नेतृत्व वाली सेना मे हजारों घुड़सवार सैनिक, धर्नुधारी आदिवासी, पैदल भील सैनिक व लड़ाकू हाथी शामिल थे। पैदल सैनिकों की लड़ाई पश्चात दोनों सेनाओं के हाथियों की लडाई शुरू हुई, महावत की जगह पर बैठकर राजा मानसिंह स्वयं एक बडे़ हाथी पर सवार हो प्रताप से लड़ने आया। हाथी भी पुरूषों की भाँति  वीरता पूर्वक चिंघाड कर लड रहे थे। महाराणा प्रताप की सेना में ‘लूण‘ व ‘रामप्रसाद ’ नामक हाथी शत्रुओं को मारने में बहुत ही कुशल थे, उन्होंने शाही सेना के मुक्ता नामक हाथी सहित कई शाही हाथियों को मार भगाया ।

चेटक घोडे़ पर सवार हो जब महाराणा प्रताप ने राजा मान सिंह के ऊपर बडे ही वेग से अपने भालें द्वारा हमला किया तब चेटक के अगले दो पैर राजा मानसिंह के हाथी की सूंड पर जा टिके थे। राजा मानसिंह महावत के पीछे हौदे में छुप गया व महावत मारा गया । इस हमले के दौरान शाही हाथी की सूंड में लगी तलवार से चेटक का पिछला बाॅया पैर कट गया । उस समय महाराणा प्रताप शाही सैनिकों द्वारा चारो ओर से घेर लिये गये । महाराणा पर तीरो की वर्षा होने लगी व  यकायक शाही सेना जीतने लगी। शाही सेना मे रण नाद और हर्ष ध्वनि गुंज रही थी । प्रताप घायल होकर भी बहादुरी से शाही सैनिकों का सामना कर रहे थे। मेवाड़ी सेना की रणनीति मे बदलाव करना पडा। क्योंकि मातृभूमि के स्वाभिमान व प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिये महाराणा प्रताप को बचाना आवश्यक था । सुरक्षा की नीति अपनाते हुए महाराणा को युद्ध क्षैत्र से निकल जाने का निवेदन किया गया लेकिन प्रताप युद्ध क्षेत्र से निकलने को किसी भी कीमत पर तैयार नही हुए । उसी समय झाला मान सिंह ने अपूर्व साहस का परिचय दिया, उसने महाराणा का मेवाड़ी छत्र और मुकुट स्वयं धारण कर लिया और मैं महाराणा हूॅं , मैं महाराणा हूॅं , यह चिल्लाते हुए युद्ध करने लगा। इस घटना से मुगल सैनिकों का ध्यान प्रताप के हमशक्ल से लगने वाले झाला मान पर केन्द्रित हो गया। झाला मान शाही सेना को पूर्व दिशा में मोडने में कामयाब हो गये। मौका देख कर हाकिम खान सूरी ने चेतक की लगाम थामते हुए भामाशाह के पास जाकर प्रताप को सुरक्षित निकालने को कहा । महाराणा को कहा गया कि आप निश्चिंत होकर जाये हम शत्रुओं को आगे नही बढने देंगे व प्राण रहते लड़ते रहेंगे। महाराणा प्रताप को वहाँ से सुरक्षित निकाल दिया गया । महाराणा प्रताप की रक्षा करने के बाद झाला मान, हाकिम खान सूरी, रामशाह तॅवर सहित कई यौद्धा वीरतापूर्वक लड़ते हुए आत्म बलिदान कर गये । समूचा युद्ध क्षेत्र रक्त के ताल में बदल गया। यहाॅ बने हुए स्मारकों के कारण रक्त तलाई विश्व विख्यात जनयुद्ध का आज भी स्मरण कराती हैं। ऐसा कहा जाता हैं कि बरसों पूर्व खमनोर का माना तालाब भी झाला मान की स्मृति में ही बना था।

प्रताप अपने घोड़े सहित पहाडियों के पीछे चले गये। प्रताप के जाने के बाद अकबर के पुत्र सलीम को जब ज्ञात हुआ कि महाराणा की सेना द्वारा धोखा दिया जा रहा हैं। महाराणा यहाँ पर नहीं हैं और वह चला गया हैं । अतः सलीम ने मुलतानी और खुरासानी नामक दो सैनिकों  को महाराणा प्रताप की खोज में सम्भावित मार्ग पर पीछे लगा दिया । जब इस बात का पता महाराणा प्रताप के छोटे भाई शक्ति सिंह को लगा जो उस समय अकबर की तरफ से लड़ रहा था। शाही सेना में शामिल होने का कारण सिर्फ महाराणा प्रताप और शक्ति सिंह के बीच बचपन में शिकार करते हुए झगड़ा हो गया था इस कारण से वह नाराज होकर अकबर से जा मिला था । लेकिन उस समय वह शत्रुओ के द्वारा मेवाड़ की पराजय देख न सका क्योंकि उसके शरीर में भी राजपूती लहू दौड़ रहा था। उसके हृदय परिवर्तन से उसका भातृत्व भाव जाग उठा, स्वाभिमान और देश  भक्ति के कारण वह अपने आप को रोक नही पाया। वह युद्ध क्षेत्र को छोड़कर तेजी के साथ अपने घोड़े नाटक पर महाराणा का पीछा करने वाले सैनिकों की तरफ बढ़ा । अपने घोड़े नाटक से वह शीघ्र ही उन घुड़सवारां पहॅुच गया और नजदीक पहुँचते ही दोनो को मार गिराया ।

मुगल सैनिकों को मार कर शक्ति सिंह आगे बढ़ा और एक टेकरी पर जाकर महाराणा को खोजने लगा। उसे सामने ही प्रताप चेटक पर जाते हुए नजर आए। शक्ति सिंह ने प्रताप को ‘ओ नीला घोड़ा रा असवार’ ‘ओ नीला घोड़ा रा असवार’ कहते हुए तीन चार बार पुकारा । यह आवाज सुन प्रताप ने ठहर कर  जब अपने विरोधी भाई को पीछे आता हुआ देखा तो एकबारगी उनके मन में शंका उत्पन्न हुई। प्रताप समझे कि शक्तिसिंह अपने बैर का बदला लेने के लिए मेरे पीछे आ रहा है, घायल घोड़े चेटक ने तीन टाँगो से एक गहरे चैडे नाले को छलांग लगा दी थी। महाराणा प्रताप दृढ़ता के साथ अपने घोड़े चेटक से उतरे। शक्तिसिंह प्रताप के समीप आते ही चरणो में गिर पड़ा और क्षमा याचना की। यहाॅं दोनो भाईयों का पुनः मिलन हुआ। प्रताप अपने घोड़े चेटक के प्रति बहुत स्नेह रखते थे क्योंकि कई अवसरो पर उसने बहादुरी का प्रदर्षन किया था व अन्त में घायल होते हुए भी रक्त तलाई से भंयकर पहाड़ी रास्ते होकर उन्हे सुरक्षित स्थान तक ले आया। खोड़ी इमली के नीचे अपने स्वामी को सुरक्षित देख स्वामी भक्त मूक अष्व चेटक ने प्राण त्याग दिये। दोनो भाईयों ने नम आॅंखो से मरे हुए चेटक को उठाकर कुछ दूरी पर गाड़ दिया । जहाँ आज भी षिव मंदिर व स्मारक बना हुआ हैं। यह स्थल चेटक समाधी के नाम से विष्व विख्यात हैं।
शक्ति सिंह ने अपने बडे भाई महाराणा प्रताप को अपना घोड़ा नाटक देकर गोगून्दा की तरफ विदाई देते हुए कहा कि अवसर मिलने पर मैं आपके पास पुनः लौट आऊँगा । शक्ति सिंह के ये शब्द सुन प्रताप गोगुन्दा की ओर प्रस्थान कर गये। युद्ध समाप्त होने पर शक्ति सिंह को सलीम ने पूछाँ कि प्रताप का क्या हुआ ? उसने जवाब दिया कि प्रताप ने ना सिर्फ दोनो सैनिको को ही मार गिराया बल्कि मेरे घोड़े नाटक को भी मार ड़ाला। ऐसी स्थिति में मुझे सैनिकांे का घोड़ा लेकर आना पड़ा। इस जवाब से सलीम को सन्देह हो गया । शक्ति सिंह से सलीम ने प्रण करते हुए कहा कि अगर तुम मुझे सच सच बता दोगे तो मैं तुम्हे क्षमा कर दूॅंगा । शक्ति सिंह ने उत्तर दिया कि ‘ मेवाड़ के राज्य का उत्तरदायित्व मेरे भाई के कन्धों पर है और मैं संकट के क्षणों में उनकी सहायता किये बिना कैसे रह सकता था। ’ सलीम ने अपनी प्रतिज्ञा का पालन किया और उसने शक्ति सिंह को षाही सेना छोड कर चले जाने की आज्ञा दी। शक्ति सिंह वहाॅ से जाकर पुनः महाराणा प्रताप से मिल गया । 


हल्दीघाटी के मुख्य दर्शनीय स्थल


1.महाराणा प्रताप राष्ट्रीय स्मारक,बलीचा – हल्दीघाटी
2.चेतक समाधी,बलीचा – हल्दीघाटी
3.प्रताप गुफा – बलीचा
4.हल्दीघाटी मूल दर्रा – खमनोर – हल्दीघाटी
5. शाही बाग, खमनोर – हल्दीघाटी
6.रक्त तलाई, खमनोर – हल्दीघाटी का मूल रणक्षेत्र जहाँ आज भी शहीदों के स्मारक मौजूद है।
7.महाप्रभु श्री हरिराय जी की बैठक – खमनोर

 

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